Natasha

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राजा की रानी

हम लोग कौन हैं, अजय शायद इस बात को जान गया था। वह अपनी गुरु-पत्नी की बात पर सहसा अत्यन्त व्यस्त होकर बोल उठा, “नहीं हैं? तो पान शायद आज अचानक निबट गये होंगे माँ?”

सुनन्दा ने उसके मुँह की तरफ क्षण-भर मुसकराकर देखते हुए कहा, “पान आज अचानक निबट गये हैं, या सिर्फ एक दिन ही अचानक आ गये थे अजय?” यह कहकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ी, फिर राजलक्ष्मी से बोली, “उस रविवार को छोटे महन्त महाराज के आने की बात थी, इसी से एक पैसे के पान मँगाए गये थे- उसके हो गये करीब दस दिन। यह बात है, इसी से हमारा अजय एकदम आश्चर्य-चकित हो गया, पान चटसे निबट कैसे गये?” इतना कहकर वह फिर हँस दी। अजय अत्यन्त अप्रतिभ होकर कहने लगा, “वाह, ऐसा है! सो होने दो न- निबट जाने दो...”

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए सदय कण्ठ से कहा, “बात तो ठीक ही है, बहिन, आखिर यह ठहरे मर्द, ये कैसे जान सकते हैं कि तुम्हारी गिरस्ती में कौन-सी चीज़ निबट गयी है?”

अजय कम-से-कम एक आदमी को अपने अनुकूल पाकर कहने लगा, “देखिए तो! और माताजी सोचती हैं कि...”

सुनन्दा ने उसी तरह हँसते हुए कहा, “हाँ, माँ सोचती तो है ही! नहीं जीजी, हमारा अजय ही घर की 'गृहिणी' है- यह सब जानता है। सिर्फ एक बात मंजूर नहीं कर सकता कि यहाँ कोई तकलीफ है और बाबूगीरी तक नदारद है!”

“क्यों नहीं कर सकता! वाह, बाबूगीरी क्या अच्छी चीज है! वह तो

हमारे...” कहते-कहते वह रुक गये और बात बिना खतम किये ही शायद मेरे लिए तमाखू सुलगाने बाहर चला गया।

सुनन्दा ने कहा, “ब्राह्मण-पण्डित के घर अकेली हर्र ही काफी है, ढूँढ़ने पर शायद एक-आध सुपारी भी मिल सकती है- अच्छा, देखती हूँ...” यह कहकर वह जाना ही चाहती थी कि राजलक्ष्मी ने सहसा उसका ऑंचल पकड़कर कहा, “हर्र मुझसे नहीं बरदाश्त होगी बहिन, सुपारी की भी जरूरत नहीं। तुम मेरे पास जरा स्थिर होकर बैठो, दो-चार बातें तो कर लूँ।” यह कहकर उसने एक प्रकार से जबरदस्ती ही उसे अपने पास बिठा लिया।

¹ चावलों का नमकीन पानी में भिगोकर बालू में भूना हुआ चबैना।

आतिथ्य के दायित्व से छुटकारा पाकर क्षण-भर के लिए दोनों ही नीरव हो रहीं। इस अवसर पर मैंने और एक बार सुनन्दा को नये सिरे से देख लिया। पहले तो यह मालूम हुआ कि यदि इसे कोई स्वीकार न करे तो वास्तव में यह 'दरिद्रता' वस्तु संसार में कितनी अर्थहीन और निस्सार प्रमाणित हो सकती है! यह हमारे साधारण बंगाली घर की साधारण नारी है। बाहर से इसमें कोई भी विशेषता नहीं दीखती, न तो रूप है और न गहने-कपड़े ही। इस टूटे-फूटे घर में जिधर देखो उधर केवल अभाव और तंगी ही की छाया दिखाई देती है। परन्तु फिर भी यह बात भी साथ ही साथ दृष्टि से छिपी नहीं रहती कि सिर्फ छाया ही है, उससे बढ़कर और कुछ भी नहीं। अभाव के दु:ख को इस नारी ने सिर्फ अपनी ऑंखों के इशारे से मना करके दूर रख छोड़ा है- इतनी उसमें हिम्मत ही नहीं कि वह जबरदस्ती भीतर घुस सके। और तारीफ यह कि कुछ महीने पहले ही इसके सब कुछ विद्यमान था- घर-द्वार, स्वजन-परिजन, नौकर-चाकर-हालत अच्छी थी, किसी बात की कमी नहीं थी- सिर्फ एक कठोर अन्याय का तत्वोसधिक प्रतिवाद करने के लिए अपना सब कुछ छोड़ आई है- जीर्ण वस्त्र की तरह सब त्याग आई है। मन स्थिर करने में उसे एक पहर भी समय नहीं लगा। उस पर भी मज़ा यह कि कहीं भी किसी अंग में इसके कठोरता का नामो-निशान तक नहीं।

राजलक्ष्मी ने सहसा मेरी ओर मुखातिब होकर कहा, “मैं समझती थी कि सुनन्दा उमर में खूब बड़ी होगी। पर हे भगवान, यह तो अभी बिल्कुंल लड़की ही है!”

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